
- Home
- /
- मुख्य समाचार
- /
- भारत के पहले शिक्षा...
भारत के पहले शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आजाद ने रखी थी आधुनिक शिक्षा प्रणाली की नींव! जानें क्यों मुस्लिम नेता कहलाना नहीं था पसंद?

नई दिल्ली। भारत के पहले शिक्षा मंत्री और महान स्वतंत्रता सेनानी मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की जयंती हर साल 11 नवंबर को मनाई जाती है। वह भारत के पहले शिक्षा मंत्री थे और उन्होंने देश के आधुनिक शिक्षा प्रणाली की नींव रखी। एक स्वतंत्रता सेनानी, लेखक और पत्रकार के रूप में, उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता पर जोर दिया और विभाजन का कड़ा विरोध किया। शिक्षा के क्षेत्र में उनके महत्वपूर्ण योगदान में आईआईटी और यूजीसी जैसे संस्थानों की स्थापना शामिल है। भारत में हर साल उनका जन्मदिन राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के रूप में मनाया जाता है। स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री के रूप में, उन्होंने 1947 से 1958 तक सेवा की।
धर्मनिरपेक्षता और समग्र राष्ट्रवाद
मौलाना आजाद का दृढ़ विश्वास था कि एक सच्चा मुसलमान होने के साथ-साथ एक सच्चा भारतीय होना भी संभव है। उन्होंने हमेशा हिंदू-मुस्लिम एकता की वकालत की और माना कि भारत की ताकत इसकी मिश्रित संस्कृति और एकता में है। वे धार्मिक आधार पर देश के विभाजन के मुखर विरोधी थे।
मैं पहले हिंदुस्तानी हूं, फिर कुछ और...
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को "मुस्लिम नेता" कहलाना इसलिए पसंद नहीं था क्योंकि वे खुद को केवल एक समुदाय का नेता नहीं, बल्कि एक भारतीय राष्ट्रवादी के रूप में देखते थे, जो भारत की समग्र एकता का एक अनिवार्य हिस्सा थे। उनके लिए राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता साथ-साथ चलते थे, और वे धार्मिक पहचान को राष्ट्रीय पहचान पर हावी नहीं होने देना चाहते थे।
साल 1940 की बात है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन, रामगढ़ में चल रहा था। इस मौके पर मौलाना आजाद ने जो शब्द कहे, वे इतिहास बन गए। उन्होंने कहा-मेरी मुसलमानी मुझे हिंदुस्तान से अलग नहीं करती। अगर कोई मुझसे मेरी पहचान पूछे, तो मैं गर्व से कहूंगा कि मैं हिंदुस्तानी हूं, और हिंदुस्तान मेरी रगों में दौड़ता है। यह केवल राजनीतिक बयान नहीं था। वह दौर ऐसा था जब धार्मिक राजनीति हवा में थी। मुस्लिम लीग दो राष्ट्र सिद्धांत का प्रचार कर रही थी और लोग अपनी पहचान धर्म से तय करने लगे थे। लेकिन मौलाना आज़ाद इस प्रवाह के खिलाफ खड़े हो गए। उनका कहना था कि इस सरज़मीं की मिट्टी में इंसान की पहचान उसके कर्म और देश के प्रति प्रेम से तय होती है, न कि मज़हब से।
गांधीजी मौलाना आजाद को कहते थे "विद्या का सम्राट"
महात्मा गांधी और मौलाना अबुल कलाम आजाद के बीच बहुत मधुर मित्रता थी। गांधीजी मौलाना आज़ाद को "विद्या का सम्राट" कहते थे। मौलाना मजहरूल हक के साथ भी बापू के गहरे दोस्ताना संबंध थे। मौलाना अबुल कलाम आजाद गांधीजी के अहिंसक सविनय अवज्ञा आंदोलन और स्वराज (स्व-शासन) के आदर्शों के उत्साही समर्थक थे। आजाद उन राष्ट्रवादी मुसलमानों में से थे जिन्होंने गांधीजी के साथ मिलकर हिंदू-मुस्लिम एकता के विचार को बढ़ावा दिया और विभाजनकारी सांप्रदायिक विचारों का कड़ा विरोध किया।
गांधीजी ने खिलाफत आंदोलन को बिना शर्त समर्थन दिया, जिससे उन्हें मौलाना मुहम्मद अली और शौकत अली जैसे मुस्लिम नेताओं के बीच काम करने का अवसर मिला और हिंदुओं व मुसलमानों के बीच अभूतपूर्व एकता पैदा हुई। हालांकि कुछ मुद्दों पर (जैसे शिक्षा का माध्यम या धार्मिक मामलों में) वैचारिक मतभेद थे, लेकिन उन्होंने कभी भी उनके मुख्य राष्ट्रीय एजेंडे को प्रभावित नहीं किया।
साम्प्रदायिक राजनीति से असहमति
आजाद मुस्लिम लीग की विभाजनकारी राजनीति और सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के आलोचक थे। जिन्ना और अन्य मुस्लिम लीग के नेताओं के विपरीत, उन्होंने हमेशा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मंच से काम किया, जिसका उद्देश्य सभी समुदायों को एकजुट करना था।
"अल-हिलाल" और राजनीतिक चेतना
अपने समाचार पत्रों "अल-हिलाल" और "अल-बलाग" के माध्यम से, उन्होंने मुसलमानों में राष्ट्रीय चेतना और उपनिवेशवाद विरोधी भावना जागृत की। उन्होंने तर्क दिया कि कुरान धर्म और राजनीति के लिए सच्चा मार्गदर्शक है, लेकिन राजनीति का आधार राष्ट्रीय हित होना चाहिए, न कि केवल धार्मिक हित।
"शो-बॉय" कहे जाने का उपहास
मुस्लिम लीग के नेता, विशेषकर जिन्ना, कांग्रेस के मुस्लिम नेताओं को अक्सर "शो-बॉय" (दिखावटी नेता) कहकर उनका उपहास करते थे, क्योंकि जिन्ना कांग्रेस को एक "हिंदू पार्टी" मानते थे। आज़ाद इस तरह की संकीर्ण सोच को खारिज करते थे।
एक किस्सा: जब भी कोई उन्हें "मुस्लिम नेता" कहकर संबोधित करता था, तो उनके चेहरे पर हल्की सी शिकन आ जाती थी। इससे पता चलता है कि वे इस लेबल को अपनी व्यापक राष्ट्रीय पहचान के विरुद्ध मानते थे। वे एक विद्वान, एक देशभक्त और आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में जाने जाना चाहते थे।




