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मंदिर में दीप जलाने पर दरगाह की आपत्ति से भड़के जज, बोले- ‘आखिर आपका क्या नुकसान?’

मद्रास हाई कोर्ट ने थिरुप्परंकुंड्रम पहाड़ी पर स्थित अरुलमिगु सुब्रमण्या स्वामी मंदिर को दीप जलाने की अनुमति देते हुए बड़ा फैसला सुनाया है। यह विवाद मंदिर के प्राचीन दीप स्तंभ पर दीप प्रज्वलन को लेकर था, जिस पर पास स्थित सिकंदर बादशाह दरगाह प्रबंधन ने आपत्ति दर्ज कराई थी। दरगाह की दलील थी कि दीप जलाने से उनके अधिकार प्रभावित होंगे, लेकिन अदालत ने इस तर्क को आधारहीन करार दिया। जज जीआर स्वामीनाथन ने सुनवाई के दौरान दरगाह पक्ष से तीखे शब्दों में पूछा कि दीप जलाने से आखिर उनका क्या नुकसान है। उन्होंने कहा कि धार्मिक परंपराओं को बिना वजह रोकना उचित नहीं है, खासकर तब जब यह किसी की संपत्ति या अधिकार का उल्लंघन न करता हो।
अदालत ने अपने फैसले में यह स्पष्ट किया कि दीप वाला क्षेत्र मंदिर का हिस्सा है और यह क्षेत्र 1920 के दशक के प्रिवी काउंसिल के आदेश में भी दरगाह को नहीं सौंपा गया था। अदालत ने बताया कि मस्जिद पहाड़ी के ऊपरी शिखर पर है, जबकि दीपथून निचले हिस्से में स्थित है। ऐसे में यह दावा करना कि दीप जलाने से दरगाह के अधिकार प्रभावित होंगे, तथ्यहीन है। अदालत ने यह भी कहा कि अगर इस स्थान पर दीप नहीं जलाया गया तो इससे मंदिर के अधिकार कमजोर पड़ सकते हैं, जो भविष्य में विवाद को और बढ़ा सकते हैं।
अदालत ने मंदिर प्रशासन को निर्देश दिया कि कार्तिगई दीपम के अवसर पर दीपथून पर दीप जलाया जाए। जज ने कहा कि कार्तिगई केवल पूजा स्थल तक सीमित त्योहार नहीं है, बल्कि पूरे परिसर में दीप जलाने की परंपरा इससे जुड़ी हुई है। फैसले में यह भी उल्लेख किया गया कि इस आदेश का पालन सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी मदुरै के पुलिस आयुक्त की होगी। उन्होंने कहा कि किसी भी प्रकार की बाधा इस धार्मिक आयोजन को रोक नहीं सकेगी।
कोर्ट ने दरगाह प्रबंधन की इस दलील को पूरी तरह से खारिज कर दिया कि दीप जलाने से उनके अधिकार प्रभावित होंगे। अदालत ने कहा कि मुस्लिम पक्ष यह बताने में विफल रहा कि दीप प्रज्वलन से उन्हें होने वाला वास्तविक नुकसान क्या है। जज ने यहां तक टिप्पणी की कि मंदिर प्रशासन अपने अधिकारों की रक्षा को लेकर लापरवाह है और इसका भार अनावश्यक रूप से भक्तों और कार्यकर्ताओं पर डाल दिया गया है, जो उचित नहीं है।
इस फैसले के बाद यह मामला सिर्फ एक दीप जलाने की अनुमति भर नहीं रह गया, बल्कि यह धार्मिक अधिकारों, परंपराओं और आपसी सहिष्णुता के संतुलन का एक महत्वपूर्ण उदाहरण बन गया है। अदालत ने स्पष्ट संदेश दिया है कि धार्मिक आस्था के अनुसार किए जाने वाले कार्यों को बिना ठोस कारण बाधित नहीं किया जा सकता, और किसी भी समुदाय को दूसरे की श्रद्धा में अनावश्यक हस्तक्षेप का अधिकार नहीं है।




