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जले हुए मरीजों के लिए काउंसलिंग है बहुत जरूरी, जानिए क्यों

जॉर्ज इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ के शोधकर्ताओं ने कहा है कि भारत के स्वास्थ्य तंत्र में जलने की चोटों से पीड़ित मरीजों के लिए देखभाल को बेहतर बनाने की कई संभावनाएं मौजूद हैं।
शोध में यह पाया गया कि अस्पतालों में जलने से बचे मरीजों को अक्सर भेदभाव और उपेक्षा का सामना करना पड़ता है। ऐसे मरीजों के लिए मानसिक स्वास्थ्य सहायता, स्वास्थ्यकर्मियों के लिए विशेष प्रशिक्षण और परामर्श, और स्वास्थ्य संस्थानों में भेदभाव रोधी नीतियां अपनाना जरूरी है।
यह अध्ययन उत्तर प्रदेश में किया गया, जहां मरीजों ने अस्पतालों में मिलने वाले व्यवहार और भेदभाव का अपना अनुभव साझा किया। बताया गया कि अक्सर सीमित संसाधनों, कम स्टाफ और प्रणालीगत खामियों के कारण जलने के मरीजों को अपेक्षित देखभाल नहीं मिल पाती।
अध्ययन के अनुसार, भारत में हर साल लगभग 21 लाख जलने की घटनाएं होती हैं जिनमें 25,000 लोगों की मौत होती है और 14 लाख से ज्यादा लोग गंभीर दिव्यांगता का सामना करते हैं।
जॉर्ज इंस्टीट्यूट की प्रतीष्ठा सिंह ने बताया, “जले हुए मरीज, खासकर महिलाएं और गरीब लोग, अस्पतालों में उपेक्षा और अलगाव का शिकार होते हैं। वहीं, काम के बोझ से जूझते स्वास्थ्यकर्मी भी मानसिक तनाव में रहते हैं, जिससे अनजाने में मरीजों के प्रति हानिकारक व्यवहार हो सकता है।”
संस्थान की जगनूर जगनूर ने कहा, “ऐसे मरीजों ने गहरी पीड़ा के बावजूद अद्भुत साहस दिखाया है। लेकिन उन्हें सहायता देने वाले सिस्टम में फैला कलंक उनकी रिकवरी और सामाजिक जीवन में वापसी में बड़ी रुकावट बनता है।”
शोध में सुझाया गया कि स्वास्थ्यकर्मियों को जलने के मरीजों से जुड़े मनोवैज्ञानिक पहलुओं और करुणामूलक संवाद के लिए प्रशिक्षण दिया जाए। अस्पतालों में परामर्श सेवाएं और पुनर्वास की व्यवस्था मजबूत की जाए, खासकर सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में।
साथ ही, visibly injured यानी जिनकी चोटें साफ दिखती हों, ऐसे मरीजों के लिए भेदभाव रोधी नीतियां बनाने और लागू करने की सिफारिश भी की गई।
उत्तर प्रदेश जैसे राज्य, जहां ज्यादातर आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है और स्वास्थ्य सुविधाएं सीमित हैं, वहां इस तरह के सुधार तत्काल जरूरी बताए गए।