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धर्म बदलकर ईसाई बनने पर नहीं मिलेगा अनुसूचित जाति का लाभ, इलाहाबाद हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणी

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक अहम और दूरगामी प्रभाव वाले फैसले में कहा है कि जो व्यक्ति अपना धर्म बदलकर ईसाई बन चुका है, वह अनुसूचित जाति वर्ग के तहत मिलने वाले लाभों का हकदार नहीं रह सकता। अदालत ने इसे भारतीय संविधान और उसकी मंशा के साथ ‘‘धोखाधड़ी’’ जैसा कृत्य बताया। हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश के प्रशासनिक ढांचे को निर्देश दिया है कि धर्मांतरण के बाद भी एससी वर्ग के लाभ लेने वाले व्यक्तियों की पहचान की जाए और ऐसे मामलों पर तत्काल रोक लगाई जाए।
यह फैसला न्यायमूर्ति प्रवीण कुमार गिरि की एकल पीठ ने सुनाया, जिन्होंने जितेंद्र साहनी नामक व्यक्ति की याचिका को खारिज कर दिया। साहनी पर हिंदू देवी-देवताओं का अपमान करने और सामाजिक वैमनस्य फैलाने का आरोप है। उन्होंने याचिका में दावा किया था कि उन्हें झूठे मामले में फंसाया गया है क्योंकि उन्होंने अपनी निजी जमीन पर ईसा मसीह के संदेश का प्रचार करने के लिए सरकारी अनुमति मांगी थी। हालांकि, अदालत ने पाया कि याचिकाकर्ता ने अपने हलफनामे में स्वयं को हिंदू बताया है, जबकि वह ईसाई धर्म में परिवर्तित हो चुका है।
हाईकोर्ट ने कहा कि धर्मांतरण के बाद व्यक्ति की सामाजिक पहचान और कानूनी स्थिति बदल जाती है, इसलिए अनुसूचित जाति लाभ लेना न केवल अवैध है, बल्कि संविधान की भावना के प्रतिकूल भी है। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि एससी का दर्जा केवल उन लोगों के लिए है जो ऐतिहासिक सामाजिक उत्पीड़न, भेदभाव और छुआछूत की प्रथा से प्रभावित रहे हैं। धर्म परिवर्तन के बाद यह आधार स्वतः समाप्त हो जाता है क्योंकि अल्पसंख्यक दर्जा एक अलग श्रेणी में आता है।
अदालत ने प्रमुख सचिव, अल्पसंख्यक कल्याण विभाग को निर्देश दिया कि वह इस अंतर को सख्ती से लागू करने के लिए ठोस कदम उठाएं। साथ ही राज्य के सभी जिलाधिकारियों को चार महीने के भीतर ऐसे मामलों की पहचान करके कानूनन कार्रवाई करने के आदेश दिए गए हैं। अदालत ने कहा कि धर्म परिवर्तन के बाद अनुसूचित जाति का लाभ जारी रखना संसाधनों के गलत उपयोग और सामाजिक न्याय की अवधारणा का हनन है।
इस निर्णय से यह स्पष्ट हो गया है कि धर्मांतरण के बाद व्यक्ति को अपने नए धार्मिक और सामाजिक दर्जे के अनुरूप ही अधिकार मिलेंगे। कानूनी विशेषज्ञ इस फैसले को राष्ट्रव्यापी बहस की शुरुआत मान रहे हैं क्योंकि यह सवाल सीधा सामाजिक कल्याण योजनाओं के दायरे और संवैधानिक अधिकारों से जुड़ा है। न्यायालय का यह निर्णय राज्य सरकार और समाज दोनों के लिए यह संदेश देता है कि आरक्षण और विशेषाधिकार केवल सामाजिक संरचना के अनुरूप और पारदर्शी आधार पर ही दिए जा सकते हैं, न कि व्यक्तिगत लाभ के लिए धर्म परिवर्तन या गलत जानकारी के सहारे।
यह फैसला आने वाले समय में कई ऐसे मामलों की समीक्षा का रास्ता खोल सकता है और विभिन्न राज्यों को भी इस दिशा में स्पष्ट कानून बनाने के लिए प्रेरित कर सकता है।




