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वाल्मीक थापर: भारत के बाघों की आवाज अब खामोश! लेकिन उनकी दूरदृष्टि वन्यजीव संरक्षण के पथ को आलोकित करती रहेगी

नई दिल्ली (राशी सिंह)। प्रख्यात बाघ संरक्षणवादी, लेखक और प्रकृति प्रेमी वाल्मीक थापर का दिल्ली में निधन हो गया। 1970 के दशक के मध्य से वे भारत में वन्यजीव संरक्षण की दिशा में सक्रिय रहे और बाघों के संरक्षण के लिए उन्होंने केंद्र और राज्य सरकारों की 150 से अधिक समितियों में योगदान दिया। वे न केवल रणथंभौर टाइगर रिजर्व में अपनी उपस्थिति के लिए जाने जाते थे, बल्कि महाराष्ट्र के ताडोबा-अंधारी जैसे अन्य टाइगर रिजर्व के पुनरुद्धार में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
विचारशील, व्यावहारिक और नवोन्मेषी संरक्षणवाद
थापर का दृष्टिकोण पारंपरिक सोच से हटकर था। वे उस धारणा के विरुद्ध थे कि "सभी पर्यटन हानिकारक होते हैं"। उन्होंने जिम्मेदार और अभिनव पर्यटन की वकालत की, जो न केवल बाघों के आवास को बचाने में मदद करे, बल्कि स्थानीय समुदायों को भी सशक्त बनाए। उनका मानना था कि वन्यजीव संरक्षण केवल वैज्ञानिकों या अधिकारियों का ही कार्य नहीं है, बल्कि यह प्रयास एक साझा मंच पर वैज्ञानिकों, कार्यकर्ताओं, वन अधिकारियों, नौकरशाहों, मीडिया और आम जनता को साथ लेकर ही संभव है।
एक लेखक जिसने बाघों को शब्द दिए
अपने जीवनकाल में थापर ने 32 किताबें लिखीं, जिनमें से चार अफ्रीकी वन्यजीवों पर आधारित थीं। उनकी प्रसिद्ध कृतियों में ‘लिविंग विद टाइगर्स’ और ‘द सीक्रेट लाइफ ऑफ टाइगर्स’ जैसे ग्रंथ शामिल हैं। उन्होंने बाघों के व्यवहार पर गहन अध्ययन किया और उन्हें एक संवेदनशील जीव के रूप में प्रस्तुत किया, जिससे आम पाठकों में बाघों के प्रति सहानुभूति और समझ पैदा हुई।
राजनीतिक और वैज्ञानिक जगत से श्रद्धांजलि
पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने उनके निधन को "बाघ संरक्षण की दुनिया की एक अपूरणीय क्षति" बताया। उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा, "आज का रणथंभौर उनके अथक प्रयासों और गहरे समर्पण का जीवंत प्रमाण है।" उन्होंने यह भी बताया कि उनके मंत्री कार्यकाल के दौरान थापर के साथ निरंतर संवाद होता था और वे जैव विविधता से जुड़े मसलों में अत्यंत जानकार थे।
एक प्रेरणास्रोत जिसने जीवन बदल दिए
स्नो लेपर्ड ट्रस्ट के संरक्षण विज्ञान निदेशक डॉ. कौस्तुभ शर्मा ने उन्हें याद करते हुए कहा कि 1993 में एक हाई स्कूल छात्र के रूप में थापर की एक प्रस्तुति ने उन्हें गहराई से प्रभावित किया। उन्होंने बताया कि "थापर का यह कहना कि ‘तुम अभी क्या कर रहे हो?’ ने उन्हें प्रेरित किया और जीवन की दिशा बदल दी।" थापर ने उन्हें बाद में कार्ल जीस संरक्षण पुरस्कार के लिए नामित भी किया था। शर्मा ने थापर के साथ बिताए वर्षों को याद करते हुए कहा, "आपके साथ काम करना केवल सीखना नहीं था, बल्कि एक अनुभव था – एक यात्रा थी जिसमें प्रकृति की सेवा सबसे ऊंचा उद्देश्य था।"
बाघों की आवाज, जो अब हमारे बीच नहीं है
प्रसिद्ध संरक्षण जीवविज्ञानी नेहा सिन्हा ने थापर को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में वर्णित किया, जिन्होंने बाघों के लिए निडरता से आवाज उठाई, जब भारत में संरक्षण आंदोलन अभी आकार ही ले रहा था। उन्होंने लिखा, "थापर ने भावनात्मक अपील और अकादमिक शोध के बीच अद्भुत संतुलन बनाकर संरक्षणवाद को एक नई दिशा दी। वे उस जानवर की आवाज़ थे जो खुद के लिए नहीं बोल सकता।"
संरक्षण की विरासत
वाल्मीक थापर की विरासत केवल उनकी पुस्तकों या भाषणों में नहीं, बल्कि उन सैकड़ों छात्रों, शोधकर्ताओं और युवा संरक्षणवादियों में जीवित है, जिन्हें उन्होंने प्रेरित किया, सिखाया और सशक्त बनाया। उनकी दूरदृष्टि, समर्पण और साहस आने वाले वर्षों तक भारत के वन्यजीव संरक्षण के पथ को आलोकित करती रहेगी।