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World Ovarian Cancer Day 2025: अंडाशय के कैंसर के लक्षण अक्सर क्यों नहीं दिखते, जानिए खतरे के संकेत

DeskNoida
9 May 2025 1:00 AM IST
World Ovarian Cancer Day 2025: अंडाशय के कैंसर के लक्षण अक्सर क्यों नहीं दिखते, जानिए खतरे के संकेत
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भारत में महिलाओं में अंडाशय का कैंसर तीसरा सबसे आम कैंसर है। विशेषज्ञों का कहना है कि अधिकतर मामलों में महिलाओं को तब पता चलता है जब बीमारी काफी बढ़ चुकी होती है।

कुछ बीमारियां ऐसी होती हैं जिनके लक्षण जल्दी सामने आ जाते हैं, जिससे इलाज समय पर शुरू हो पाता है। लेकिन अंडाशय (ओवरी) का कैंसर ऐसा नहीं है। इसके शुरूआती लक्षण इतने हल्के और अस्पष्ट होते हैं कि ज़्यादातर मामलों में महिलाएं इसे गंभीरता से नहीं लेतीं। जब तक बीमारी का पता चलता है, तब तक यह शरीर में फैल चुकी होती है, जिससे इलाज मुश्किल हो जाता है।

भारत में महिलाओं में अंडाशय का कैंसर तीसरा सबसे आम कैंसर है। विशेषज्ञों का कहना है कि अधिकतर मामलों में महिलाओं को तब पता चलता है जब बीमारी काफी बढ़ चुकी होती है। न्यूयॉर्क स्थित मेमोरियल स्लोन केटरिंग कैंसर सेंटर के स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. अहमद अल-नियामी के अनुसार, महिलाओं को अपने शरीर में होने वाले बदलावों पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि इसके लक्षण आम परेशानियों जैसे लग सकते हैं।

अंडाशय के कैंसर के कुछ आम लक्षणों में पेट का फूला हुआ महसूस होना या सूजन आना, बार-बार पेशाब लगना, भूख न लगना, पाचन से जुड़ी गड़बड़ियां जैसे कब्ज या दस्त, और हल्का लेकिन लगातार पेट दर्द शामिल हो सकते हैं। इन लक्षणों को अक्सर सामान्य शारीरिक परेशानी मानकर नजरअंदाज कर दिया जाता है, जिससे बीमारी पकड़ में नहीं आती।

इस कैंसर का खतरा उम्र के साथ बढ़ता है, खासकर 50 वर्ष के बाद। यदि परिवार में किसी को अंडाशय या स्तन कैंसर रहा हो, तो जोखिम और बढ़ जाता है। कुछ आनुवंशिक बदलाव, जैसे बीआरसीए1 या बीआरसीए2 म्यूटेशन, भी इसके पीछे जिम्मेदार हो सकते हैं। मोटापा, हार्मोनल इलाज, या आईवीएफ जैसी प्रक्रियाएं भी खतरे को बढ़ा सकती हैं।

हालांकि इस बीमारी से पूरी तरह बचा नहीं जा सकता, लेकिन कुछ उपाय अपनाकर जोखिम को कम किया जा सकता है। संतुलित आहार, नियमित व्यायाम, और समय-समय पर जांच मददगार हो सकती है। कई मामलों में गर्भनिरोधक गोलियां या नसबंदी जैसी प्रक्रिया से भी जोखिम कम होता देखा गया है। यदि किसी महिला को पारिवारिक इतिहास है तो उन्हें आनुवंशिक जांच करानी चाहिए ताकि जरूरत पड़ने पर रोकथाम के उपाय किए जा सकें।

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