जन्म दिवस पर विशेष लेख: डॉ. कुंअर बेचैन और गुरुवार की काव्य कक्षाएं

Update: 2025-07-01 13:42 GMT

हिन्दी साहित्याकाश के ध्रुव सितारे, नवगीतकार, गजल-सम्राट, लोग गीतिकाव्य के चिन्तक-सृजक लाडले डॉ. कुंअर बेचैन को अधिकतर लोग इन्हीं उपर्युक्त विधाओं में सिद्धहस्त समझते होंगे। इसके अलावा जो इनके ज़रा-सा भी पास आया, वो उनके व्यक्तित्व की अमिट छाप से नहीं बच पाया।

कहने का तात्पर्य यह है कि ज़्यादातर लोग डॉक्टर साहब को कृत्तित्व में अग्रगण्य मानते हैं। बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि डॉ. साहब अपनी ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा के लक्षण नवयुवकों में खोजते थे, और जो उन्हें सामर्थ्यवान दिखायी देता था, उसमें वह अपना ज्ञान-कोश उड़ेलना शुरू कर देते थे।

‘गुरुवार’ ही एक ऐसा शुभदिन था जिसमें कई नवांकुर उदीयमान कवि अपनी-अपनी कृतियों को डॉ. साहब के समक्ष लाकर दिखाते थे और डॉ. साहब अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और भावनाओं से उसकी बुततराशी करने लगते थे। अब यह कहने से इसका अर्थ यह नहीं निकलता कि एक संभलकर चलने वाले को बैसाखियां सौंप देते थे, बल्कि थोड़ा-बहुत शुद्धिकरण करके उसे रास्ते पर छोड़ देते थे और वह नवयुवक, उदीयमान कवि उनकी उंगली के सहारे अपनी काव्य-यात्रा पर निकल पड़ता था।

जिसमें से एक मैं भी अपने आपको भाग्यशाली समझता हूं। गुरुवार के छात्र रहे सुशील कुमार शर्मा का कहना है कि हिन्दी साहित्य जगत में डॉ. कुंअर बेचैन जी का एक विशेष अतुलनीय स्थान है। जो भी व्यक्ति उनके सम्पर्क में आता उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का प्रशंसक हुए बिना नहीं रह पाता। यह मेरे लिये परम सौभाग्य की बात रही कि इनको श्रेष्ठ अध्यापक, वरिष्ठ कवि और इससे बढ़कर एक अद्भुत मार्गदर्शक के रूप में देखने और समझने का अवसर प्राप्त हुआ। यह कर्मयोगी अपनी तपस्या और समस्त व्यस्तताओं के बावजूद मेरा व मेरी अग्रज नयी काव्य-प्रतिभाओं का अपने निवास-स्थान पर ‘गुरुवार’ को साप्ताहिक-गोष्ठी का नाम देकर मार्गदर्शन करते रहे।

गुरुवार काव्य कक्षा के दूसरे छात्र चरण शंकर ‘प्रसून’ कहते हैं कि आंधियों में शामियाने गिर न जायें ये कभी, अब हमें ही खींचनी हैं रस्सियां सारी उमर। डॉ. बेचैन ऐसी ही एक रस्सी रूपी शक्ति थे, जो हम जैसे भविष्य रूपी शामियानों को ठीक तरह से जकड़कर लगाते रहे, सजाते और संवारते रहे। डॉ. साहब ने सप्ताह में एक दिन गुरुवार हमारे लिये तय किया था। हम उनके घर जाकर अपनी नवीन कविताएं और ग़ज़लें सुनाते और बाद में उनसे प्रेरणा लेते थे।

मैं अपने मन से कह सकता हूं कि डॉ. बेचैन जी जैसा व्यक्तिव मैंने अन्य किसी कवि में अभी तक नहीं देखा। तीसरे छात्र गिरीशचंद्र ‘नीर’ बताते हैं कि जिस प्रकार नभमण्डल में अनगिनत तारे होने के बावज़ूद चांद और सूरज के बिना तारों का कोई महत्व नहीं होता, उसी प्रकार डॉ. कुंअर बेचैन का स्थान निर्धारित न किये जाने पर हिन्दी साहित्य का कोई अस्तित्व नहीं है। यदि देश के सभी बड़े कवियों-साहित्यकारों के नाम लिखे जाएं तो डॉ. साहब जी का नाम सबसे अग्रणी रहेगा। डॉ. साहब ने अपनी कविताओं-गीतों के माध्यम से जो बातें कही हैं, वे ऐसे लगती हैं कि पढ़ने-सुनने वाले को अपने ही जीवन की घटना लगे।

यही उनके लेखन में सबसे महत्वपूर्ण बात होती है। उनके बारे में जितना भी कहा जाए या लिखा जाए, कम है। क्योंकि उनकी कविताएं तथा गीत हर उम्र के मानव का एक नया तथा श्रेष्ठ मार्गदर्शन करती हैं तथा करती रहेंगीं। जब कोई व्यक्ति लेखन के माध्यम से बड़ा कवि बन जाता है तो उसे घर, गृहस्थी, दोस्त व साहित्य-चिन्तन इत्यादि का कतई ध्यान नहीं रहता, वह हमेशा समय का अभाव महसूस करता है, मगर डॉ. कुंअर बेचैन ने इस बात को ध्यान में रखते हुए हर क्षेत्र में रुचि ली, चाहे वह गृहकार्य हो या साहित्य-चिन्तन।

वह एक बड़े सहज, सरल व मधुर स्वभाव के धनी थे, जिनमें हर व्यक्ति अपनापन-सा पाता था। उन्होंने मुझ जैसे कितने ही युवा-लेखकों जो साहित्य में मार्गदर्शन चाहते हैं, को एक निश्चित समय दे रखा था यानी ‘गुरुवार’, जिसमें वे साहित्य-चर्चाएँ करते थे। साहित्यिक गतिविधियों पर विचार-विमर्श करते थे और हमारी नवीन-काव्य लेखनी में विशेष रुचि भी लेते थे। जब भी मैं उनसे मिलता तो उनसे कोई न कोई नयी बात अवश्य सीखने को मिलती। एक नयी दिशा का बोध होता, नयी चेतना के संचार का आभास होता। उनके एक गीत की पंक्तियां तो मेरे लिये प्रेरणा ही बन गई हैं-‘‘ये दुनिया सूखी मिट्टी है, तू प्यार के छींटे देता चल!

उनका यह स्नेह और सहयोग मेरे लिये अमूल्य और अकथनीय है। मैं इस बात का व्याख्यान किस प्रकार करूँ, समझ में कुछ नहीं आता, दिल कहने को होता है, महसूस करता है मगर अधरों तक आते-आते शब्द एक अद्भुत मिठास में बदलकर पुनः दिल में समा जाते हैं। गुरुवर डॉ. कुंअर बेचैन के बारे में जितना भी कहा जाये थोड़ा ही होगा और फिर मैं उनके लिए क्या कह सकता हूं वह तुमुल विचारों व भावों के धनी थे। आज तक यानी कि जब से उनका सान्निध्य प्राप्त हुआ, यह नहीं समझ पाया कि उनकी पूजा का समय क्या था, मेरा कृत्य तो पल-पल उनकी पूजा ही करता रहता था। उनकी अर्चना में जो सुख का अनुभव होता था शायद ही किसी अमूल्य निधि को पाने में हो सकेगा।

कभी-कभी ऐसा होता है कि हम किसी व्यक्ति के बारे में जानकर भी नहीं जान पाते, न ही समझ पाते कि आख़िर वह क्या है? उससे क्या सम्बन्ध है हमारा, और कौन-सा वह बन्धन है जो हमें उससे बांध रहा है। यही बात मेरे और गुरुवर कुंअर बेचैन के बीच रही। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि कौन-सा वह अटूट धागा है जिसने उनके वात्सल्य का अनुपम रूप लेकर मेरे तन-मन को इस भांति बांध रखा है, जिसे खोलना मेरे मन के वश में नहीं है। कुंअर जी के हर बोल हर शब्द में वो सात्विक शीतल बिन्दु की बौछारें हैं जिन बौछारों में भीगकर हमारा मन आनन्द की गहराई का स्पर्श कर उठता है।

जाने कितनी आशाओं का जन्म होता है इन्हें सुनकर, गुरुजी ने हमारे हृदय में उस आशा का संचार किया है जो हमें पल-पल इस बात के लिए सचेत करती है कि संसार के इतिहास में अमरत्व का वरदान लेकर जीते रहो, ये जीवन क्षणिक है और क्षणिक जीवन में करना बहुत कुछ है। उनकी कुछ बातें हैं उन्हें कभी नहीं भुलाया जा सकता है और न ही वे भूलने के लायक हैं क्योंकि वे बातें उस महान कवि की, उस महान व्यक्तित्व की महानताएं हैं, जिन्होंने कभी किसी को यह एहसास तक न होने दिया कि विमुखता क्या है, उन्होंने एक बार हमसे स्वयं कहा था कि मैं बहुत भटका हूं मैं नहीं चाहता कि आने वाली पीढ़ी मेरी तरह भटके।

डॉ. चेतन आनन्द

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