डॉ. चेतन आनंद
नई दिल्ली। भारत में कथावाचन केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक परंपरा है, जो सदियों से समाज को जोड़ने, अध्यात्म को सरल बनाने और जीवन मूल्यों को स्थापित करने का माध्यम रही है। वेदों-पुराणों में वर्णित कथाएं, लोक परंपराएं और भक्ति आंदोलन ने इस कला को समय के साथ और भी समृद्ध किया। किंतु 21वीं सदी में, विशेषकर पिछले दो दशकों में, कथावाचन एक नए स्वरूप में दिखाई देने लगा है, जहाँ यह सिर्फ “धर्मकार्य” नहीं रहा, बल्कि कई स्थानों पर “व्यवसाय” का रूप भी ले चुका है। फीस, लोकप्रियता, सोशल मीडिया का प्रभाव और हजारों-लाखों की भीड़ ने कथावाचन को एक बड़े उद्योग में बदल दिया है। इस बदलाव ने अनेक प्रश्न भी खड़े किए हैं। क्या कथावाचन अब भी शुद्ध आध्यात्मिक साधना है? या यह एक पेशा, मंच-कला और आर्थिक गतिविधि बन गया है?
कथावाचन का मूल स्वरूप : धर्म, भक्ति और जन-जागरण
प्राचीन भारत में कथा-वाचन सामाजिक ज्ञान-वितरण का प्रमुख साधन था। कथा-व्यास गाँवों-नगरों में जाकर रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत, शिवपुराण जैसी कथाएँ सुनाते थे। यह सेवा-भावनाओं पर आधारित कार्य था, जहाँ कथावाचक को यथासंभव ‘दक्षिणा’ दी जाती थी, जो उनका जीवन-यापन सुनिश्चित करती थी। कथा का उद्देश्य था, धर्म का प्रचार, समाज में नैतिकता का संरक्षण और सामान्य लोगों को जीवन-दर्शन समझाना।
आज भी अनेक कथावाचक इसे सेवा ही मानते हैं और कोई निश्चित फीस नहीं लेते। कई संगठन और आश्रम कथाओं को मुफ्त आयोजित करते हैं। समाज में ऐसे व्यासों की संख्या कम नहीं है जो भक्ति को ही सर्वोपरि मानते हैं। परंतु समय के साथ-साथ, कथावाचन की प्रस्तुति शैली, मंच, आयोजन और लोकप्रियता ने इसे नया आर्थिक आयाम भी प्रदान किया है।
आधुनिक कथावाचन : मंच, मीडिया और बढ़ता व्यावसायीकरण
आधुनिक दौर में कथा अब केवल मंदिर या धर्मशाला तक सीमित नहीं रह गई। बड़े पंडाल, भव्य साउंड सिस्टम, एलईडी स्क्रीन, सोशल मीडिया लाइव स्ट्रीम और प्रचार-प्रसार के साथ यह बड़े आयोजनों में बदल चुकी है। लोकप्रिय कथावाचकों के कार्यक्रमों में लाखों की भीड़ उमड़ती है। आयोजक इसके लिए भारी खर्च करते हैं। आवास, यात्रा, मंच, पंडाल, भंडारा, सुरक्षा और मीडिया कवरेज। ऐसे में कथा-व्यास की फीस भी स्वाभाविक रूप से बढ़ी है। यह कहना गलत नहीं होगा कि आज कथावाचन स्प्रिच्युअल एन्टरटेनमेंट और फेथ इवेंट इंडस्ट्री का महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है। यहाँ यह समझना जरूरी है कि व्यावसायीकरण का अर्थ अनिवार्य रूप से नकारात्मक नहीं होता। यदि कथा के माध्यम से समाज में सकारात्मक परिवर्तन, अध्यात्मिक प्रेरणा और सांस्कृतिक एकता फैल रही है, तो यह उपयोगी भी है। परंतु फीस और संपत्ति को लेकर उठने वाले प्रश्नों ने बहस को गहरा किया है।
भारत के प्रसिद्ध कथावाचक और उनकी फीस
मीडिया रिपोर्टों के आधार पर आज भारत में कई कथावाचक अत्यधिक लोकप्रिय हैं और उनकी कथाओं के लिए बड़ी राशि खर्च की जाती है।
1. देवकीनंदन ठाकुर सबसे लोकप्रिय कथा- व्यासों में से एक, जिनकी फीस लगभग 10-12 लाख रुपए बताई जाती है। उनकी भक्ति व रसपूर्ण भाषा-शैली और बड़ी भीड़ उनकी विशेष पहचान है।
2. पं. प्रदीप मिश्रा (सीहोर) शिवपुराण कथा के लिए जाने जाते हैं। विभिन्न रिपोर्टों में उनकी फीस 10 लाख से 50 लाख तक बताई जाती है। शिवभक्ति की शैली ने उन्हें देशव्यापी पहचान दी है।
3. धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री (बागेश्वर धाम) दिव्य दरबार शैली के कारण प्रख्यात। मीडिया के अनुसार एक कार्यक्रम की फीस 3 से 4 लाख के आसपास है।
4. अनिरुद्धाचार्य जी भागवत और रामकथा के लोकप्रिय व्यास, जिनकी अनुमानित फीस 12 से 15 लाख मानी जाती है।
5. जया किशोरी जी युवा कथावाचक, जिनकी कथा व भजन दोनों अत्यंत लोकप्रिय हैं। फीस 8 से 12 लाख बताई जाती है।
6. मोरारी बापू विश्वप्रसिद्ध रामकथाकार, जो किसी प्रकार की फीस नहीं लेते। वे कथा को साधना मानते हैं।
इन कथावाचकों के मंच इतने बड़े हो गए हैं कि कई बार पूरा आयोजन करोड़ों तक पहुँच जाता है। इसमें कथा-व्यास की फीस के अलावा पंडाल, ध्वनि, मंच, भोजन और भी बहुत कुछ शामिल होता है।
कथावाचकों की अनुमानित संपत्ति : मीडिया-आधारित आँकड़े
कथावाचकों की वास्तविक संपत्ति आधिकारिक रूप से सार्वजनिक नहीं होती, इसलिए उपलब्ध सभी आंकड़े “अनुमानित” ही कहे जाते हैं। कई कथावाचकों की नेटवर्थ 10 करोड़ से 30 करोड़ के बीच बताई जाती है। कुछ लोग आश्रम, ट्रस्ट या चैरिटी के माध्यम से कार्य करते हैं, इसलिए उनकी व्यक्तिगत संपत्ति अलग नहीं आँकी जा सकती। कुछ कथावाचक कोई फीस नहीं लेते, पर कार्यक्रमों से जुड़े दान/दक्षिणा, संस्थागत सहयोग आदि से उनका आर्थिक ढांचा चलता है।
धर्म बनाम धंधा : मूल प्रश्न
अब बड़ा सवाल यह है कि कथावाचन धर्म है या धंधा? सच्चाई यह है कि धर्म उन कथावाचकों के लिए है जो कथा को सेवा मानकर करते हैं, समाज में आध्यात्मिक चेतना फैलाते हैं और वैदिक संस्कृति का प्रसार करते हैं। धंधा तब प्रतीत होता है जब फीस, शो-ऑफ, भीड़, चकाचौंध और प्रचार-मार्केटिंग कथा की मूल भावना पर हावी हो जाते हैं। ये दोनों स्थितियाँ आज एक साथ मौजूद हैं। कई बड़े कथावाचक अपार लोकप्रियता और भारी भीड़ के कारण अपने कार्यक्रमों को व्यवस्थित करने के लिए शुल्क लेते हैं, जो व्यावहारिक भी है। वहीं कुछ लोग इसे भक्ति के कारोबार में बदलने का आरोप भी लगाते हैं। इसलिए कहना उचित है कि आज का कथावाचन “धर्म $ प्रबंधन $ व्यवसाय” तीनों का मिश्रित रूप है।
कुमार विश्वास कथावाचक नहीं, बल्कि वक्ता और कवि
कई लोग मंचीय प्रस्तुति देखकर कुमार विश्वास का नाम कथावाचकों के साथ जोड़ देते हैं, पर यह गलत है। वे धार्मिक कथावाचक नहीं, बल्कि शायर, कवि और प्रेरक वक्ता हैं। उनकी मंच-शैली साहित्य, देशभक्ति और प्रेम-कविता पर आधारित है। फीस 5 से 10 लाख तक बताई जाती है, पर यह “कथा“ नहीं बल्कि “कवि सम्मेलन” और “स्पीच इवेंट” की श्रेणी में आता है। इसलिए उन्हें कथावाचकों की सूची में रखना उचित नहीं होगा।
समाज पर कथावाचन का प्रभाव
कथावाचन चाहे धर्म हो या व्यवसाय, यह आज भी करोड़ों लोगों के जीवन में भावनात्मक ऊर्जा भरता है। भक्ति रस और अध्यात्मिक विचार लोगों को शांति प्रदान करते हैं। सामाजिक सद्भाव, दान, सेवा और आध्यात्मिक मूल्यों को बढ़ावा मिलता है। कई कथावाचक समाज सेवा, गौसेवा, शिक्षा और चैरिटी कार्यों में भी सक्रिय हैं।
कथावाचन भारत की सांस्कृतिक धरोहर है। बदलते समय में इसका स्वरूप बदला है। एक ओर आध्यात्मिक परंपरा, दूसरी ओर आधुनिक आयोजन-व्यवस्था और आर्थिक ढांचा। यह कहना सही होगा कि आज कथावाचन न तो केवल धर्म है, न केवल धंधा, बल्कि “धार्मिक-सांस्कृतिक उद्योग” का एक नया रूप है, जहाँ भक्ति भी है और प्रबंधन भी। भारत के कथावाचकों की लोकप्रियता ने यह सिद्ध कर दिया है कि कथाएँ आज भी भारतीय समाज की आत्मा हैं, बस उनकी प्रस्तुति और मंच बदल गए हैं।